मेरा शहर


मेरा शहर


जून की दोपहर में
गलियों में दौड़ते
वो बच्चे... 
अब नहीं दिखते।
मटका कुल्फी वाली गाड़ी की
घंटी का
अब इंतज़ार कोई नही करता।
कोई पुरानी कॉपी को नहीं संभालता कि उसे रद्दी में बेचकर,
उसके बदले में ली जाएगी
सोनपापड़ी।
उस मैदान में जहाँ
एक ओर क्रिकेट खेला जाता था और दूसरी ओर फुटबॉल,
वहाँ अब एक ऊंची इमारत दिखती हैं।
वो पार्क जहाँ रात को खाने के बाद लोगों का
जमावड़ा लगता था,
हँसी-मजाक चलता था,
वो भी आज वीरान है।
लोग अब एक दूसरे से दूर हैं, और खुद से भी,
कितना बदल गया है मेरा शहर।
Kunal Jha©